Thursday, 27 August 2009

तीसरी ज़बान!!

सुबह के दस बज गए है.....
आज आँखों में नींद नहीं है...
उनींदी ऑंखें लिए जाने क्या सोच रहा हूँ...
शायद अतीत के पन्ने जेहन से बाहर आ गए है... उनकी तबियत भी सही नहीं है....कल एस एम एस आया था....
बी पी कुछ ज्यादा है,फिर भी डांस क्लास जाना ज़रूरी लग रहा है उनको,
बस अभी अभी ही तो इत्तला करी है.....
एस एम एस से ही...
इस मुई बोली के भी अलग माइने है...जो हिंदी या अंग्रेजी में नहीं कह पाते...ये कमबख्त हमेशा अर्जेंट डिलिवरी लिए तैयार खडा रहता है... ख्वाइशे भी नहीं रह पाती दिल के भीतर...अनायास ही उंगलिया चल जाती है...और धज्जिया उड़ा देती है उन सारी बातों का जिन्हें मन सीक्रेट रखने की सोचता है... खैर छोड़ो!!! इस मुई ज़बान को क्या दिस्कस करना.....


Note : आप लोग सोच रहे होंगे मै सुबह के दस बजे ना नींद आने को लेकर क्यों परेशान हूँ?? अरे भाई येही तो वक़्त होता है हमारे सोने का...वो क्या है न...रात तो हमारे अमरीका के लोग ले लेते है हमसे,हमें राहुल से Allex बनाकर...अब दिन भी ही बचता है जो सुकून देता है.....

Note:

कुछ लाइने..दिनकर जी रचना: रश्मि रथी से....

आरम्भ है प्रचंड,
बोले मस्तकों के झुंड,
आज ज़ंग की घड़ी की
तुम गुहार दो,
आरम्भ है प्रचंड.....

आन बान शान या की
जान का हो दान,
आज इक धनुष के बाण,
पे उतार दो,
आरम्भ है प्रचंड.....

मन करे सो प्राण दे,
जो मन करे सो प्राण ले,
वही तो एक,
सर्व शक्तिमान है, मन करे जो....
विश्व की पुकार है ये,
भागवत का सार है,
की युद्घ ही तो,
वीर का प्रमाण है,
कौरवों की भीड़ हो,
या पांडवो का नीड़ हो,
जो लड़ सका है,
वो ही तो महान है..
आरम्भ है प्रचंड...

जीत की हवस नहीं,
किसी पे कोई वश नहीं,
क्या ज़िन्दगी है,
ठोकरों पे मार दो,
मौत अंत है नहीं,
तो मौत से भी क्यों डरे,
ये जाके आसमान में दहाड़ दो,
आरम्भ है प्रचंड.....

हो दया का भाव,
या की शौर्य का चुनाव,
या की हार का वो घाव,
तुम ये सोच लो..
या की पूरे भाल पर,
जला रहे विजय का लाल,
लाल ये गुलाल, तुम ये सोच लो..
रंग केशरी हो या,
मृदंग केशरी हो,
या की केशरी हो ताल,
तुम ये सोच लो..
जिस कवी की कल्पना में,
ज़िन्दगी हो प्रेम गीत,
उस कवी को आज,
तुम नकार दो..
भीगती नसों में आज,
फूलती रगों में आज,
आग की लपट का,
तुम बघार दो...

आरम्भ है प्रचंड,
बोले मस्तकों के झुंड,
आज ज़ंग की घड़ी की तुम गुहार दो,
आरम्भ है प्रचंड.....

Wednesday, 19 August 2009

कुछ लाइने....,जो बस लिख दी! युहीं!!!

खामोशी यूँ छा जाती है,
तुम्हारे रूठने के बाद।
की धड़कने भी अपनी,
महसूस नही होती॥




पहले तो हम,
आग से खेला करते थे,,
पर जलन क्या होती है,
अब पता चला।।




ख्याल इस कदर है,
हमें उस नाचीज़ का।
की नाम तक याद नही,
अब हर चीज़ का॥.....to be continued.




उन्हें यूँ देखा,
तो बस देखता चला गया।
था तो भीड़ में,
पर तन्हाईयों में खोता चला गया॥
कुछ कहना चाहा,
पर कह न पाया....
आंखों में गहराई थी इतनी,
की बस डूबता चला गया॥
महफ़िल कुछ खामोश सी लग रही थी,
हम उन्हें और वो हमे देख रही थी।
जुबां थी खामोश,
पर निगाहें सही वक्त ढूंढ रही थी.....

बादल या सागर!!

बारिश की बूँद!
हवाओं के रथ पर सवार,
सागर का दामन छोड़कर,
गई थी बादल के पास,
शायद!
ये सोच कर की वही आशियाना होगा,
उसका।
और सागर शांत सा,
बस देखता रहा...
और वो चली गई थी,
अपने बादल के पास।
काफ़ी दिनों तक अठखेलिया करते हुए,
विचरती रही खुले आसमान में,
कभी तारो की महफ़िल में,
कभी चांदनी में,
मदहोश सी!
बादल की बाहों में,
उसी क आगोश में खोती चली गई...
और सागर बेचारा खामोशी से,
देख रहा था....
कभी ख़ुद को कोसता....
कभी अपनी नियति मान कर,
शांत हो जाता॥
उमड़ता रहा गरजता रहा॥
शायद तड़पन थी उसकी...
जो लहरों का रूप लेकर किनारे से टकरा रही थी॥
और फ़िर.....
बहारो ने रुख बदला,
घटाए छाई,
उस नासमझ को पता ही न चला,
और वो गिर रही थी,
अपने पल भर के आशियाने से.....
रोती हुई,बिलखती हुई.....
शायद पछता रही थी अपनी नादानी पर,
और बादल!
मुस्कराता हुआ,लहराता हुआ...
गुजर रहा था,
कोई दूसरी बूँद की तलाश में।
और वो बूँद,
शकुचाती हुई,शर्माती हुई,
धीरे धीरे बढ़ रही थी....
बढ़ रही थी,
सागर के पास,
और सागर,
अपनी बाहें पसारे,सब कुछ भुलाकर,
इंतज़ार कर रहा था,
अपनी प्यारी सी बूँद का॥

Monday, 3 August 2009

shab!!


शब!
रात!!
हाँ आज फिर से आई है.
अक्सर ही तो आती रहती है,
तुम्हारी ज़िन्दगी में .
कितनी आयी...
कितनी और आयेंगी..
खैर छोडो..
अपनी बात करते हैं..
कुछ अनोखा सा नहीं है मुझमे..
मैं भी उन सब की तरह हूँ.
जिनके चले जाने पर,
तुम उसे मनहूसियत बताते हो..
अँधेरे और असफलता का शबब कहते हो.
पर क्या कभी महसूस किया है तुमने?
ये वही रात है,
जो पल पल जल के भी,
सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचती है,
सिर्फ तुम्हारे लिए....
तुम्हारी थकावट...
तुम्हारे गम,
तुम्हारी परेशानियों को,
अपने आगोश में ले लेती है,
ये वही हैं,
जो तुम्हारे अंदर के बच्चे को,
एक नया सा रूप देती है,
तुम्हे दुलारती है..
पुचकारती है.
अपने अँधेरे रूपी आँचल को फैला कर,
तुम्हे शीतल हवाओ की थपकिया देते हुए,
तुम्हे दूर कर देती है,
इस सांसारिक जीवन से...
एक माँ की तरह.. .....
देखो!
आज मैं फिर से आयी हूँ.
एक नए रूप में.
तुम पर अपना सर्वस्व निछावर करने .
पर...
पर कब तक रहोगे तुम मेरे पास?
कब तक??
शायद कल सुबह तक!
हाँ रह भी कैसे सकते हो...
तुम्हे फिर से बड़ा जो होना है.
और मेरा वजूद ही क्या रहा जायेगा..
तुम्हे सब कुछ देते देते..
मैं भी तो बढ़ रही हूँ...
अपनी पूर्णता की तरफ,
पूर्णता के बाद..
होता है विनाश!
मेरा एक एक कतरा.
मिट जायेगा तुम्हारे बड़े होने के साथ.
सुबह की रौशनी,
जो तुम्हारे लिए नयी खुशिया लाएगी...
मेरे लिए..
तुमसे मेरा विछोह..
नामोनिशा तक ना रहेगा मेरा.
और तुम..
फिर से उसी मायाजाल में खो जाओगे.
दिन भर भागते रहोगे.
अपने लक्ष्य के पीछे.
और शाम होते ही,
फिर से एक नयी रात के आगोश में खो जाओगे.
मैं..
मेरा क्या होगा??
मेरा तो वजूद ही न रहेगा..
पर क्या मैं याद रहूंगी तुमको???
क्या एक बार भी मेरे प्यार के बारे में सोचोगे तुम??
या बस,यु हीं!!!

Sunday, 2 August 2009

मनः स्थिति!!

आज दिल कुछ लिखने को कह रहा है....
बैठ गए हम अपने लैपटॉप के सामने...
क्या लिखे??
अपने गम!
अपनी खुशिया!
कुछ यादे!!
या फिर जिन्दगी के कुछ रोचक प्रसंघ!!
या फिर क्षणिक मनः स्थिति बयाँ करे ....
हाँ येही सही रहेगा.
सो सुनिए..
अरे सो मत जाइये,
सिर्फ सुनिए,
आज फूट-फूट कर रोने की इक्षा हो रही है..
विचारों में खोएं हैं...
कभी अम्मा की याद आती है.
कभी नेहू...
कभी पापा की शक्ल...
तो कभी लगता है श्रेया दिखाई पड़ रही हो...
बस आस है एक कंधे की,
जिसपे सर रख कर मै रो सकू...
और एक थप थपी की
जो दिलांसा दे...
की रोते नहीं है...
मैं हूँ ना!!